बिहार के तिरहुत प्रमंडल का एक ज़िला है शिवहर. साल 1994 में सीतामढ़ी से कट कर अस्तित्व में आए इस ज़िले तक अब तक रेल नहीं पहुंच सकी है. क्षेत्रफल के लिहाज़ से सबसे छोटे ज़िले के तौर पर शुमार किए जाने वाले इस शहर को आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत पिछड़ा माना जाता है.
हालांकि ज़िले का पिछड़ापन दीगर मामला है, आज हम आपको शिवहर ज़िले में अवस्थित एक ऐसे मध्य विद्यालय तक ले जा रहे हैं, जिसे स्वच्छता के लिहाज़ से साल 2021 में ज़िले के सर्वश्रेष्ठ विद्यालय के तौर पर सम्मानित किया गया.
जिसे साल 2013 से लेकर अब तक लगातार बाल विज्ञान कांग्रेस में ज़िले के प्रतिनिधि विद्यालय के तौर पर प्रतिनिधित्व का मौका मिला है. जिसे कोविड काल के दौरान प्रवासी श्रमिकों के लिहाज़ से बेहतरीन प्रबंधन के लिए भी पुरस्कृत किया गया.
ज़िले के डुमरी कटसरी ब्लॉक अंतर्गत माधोपुर सुन्दर गांव में उत्कृष्ट मध्य विद्यालय तक पहुंचने में मशक्कत तो करनी पड़ती है. स्कूल तक पहुंचने वाली सड़क कच्ची है. यदि बारिश हो जाए तो वहां मोटरगाड़ी का पहुंचना मुश्किल हो जाता है. बारिश होने पर यहां पढ़ाने वाले शिक्षक अपनी मोटरसाइकिलें दूर ही खड़ी करके यहां तक पहुंचते हैं. हमारे वहां पहुंचते वक्त भी बूंदाबांदी हो ही रही थी. डर था कि यदि बारिश हो गई तो हमारी गाड़ी यहां से कैसे निकल पाएगी, लेकिन स्कूल के प्रांगण में पहुंचने पर सुखद एहसास होता है. स्कूल की इमारत भले ही बहुत खास नहीं दिखाई देती लेकिन चीजें व्यवस्थित दिखाई देती हैं. बच्चे कक्षाओं के साथ ही लाइब्रेरी में पढ़ते दिखाई देते हैं.
शिक्षकों की कमी है
वैसे तो बिहार के अधिकांश प्राइमरी स्कूलों में शिक्षकों की कमी है, लेकिन यहां शिक्षकों की कमी के बावजूद बच्चों के साथ ही शिक्षकों का जज़्बा देखते ही बनता है. बड़े बच्चे खुद से छोटे बच्चों और क्लासेस के लिए गाइड या टीम लीड की भूमिका अदा करते दिखते हैं.
शिक्षकों की कमी की भरपाई के तौर पर पढ़ाते नज़र आते हैं. मिड डे मील के लिए कोई भगदड़ नहीं दिखाई देती. रसोई भी अपेक्षाकृत साफ़-सुथरा दिखाई पड़ता है, और रसोइया भी एप्रन पहने दिखाई देती हैं. शुद्ध पेय जल के लिए वॉटर प्यूरिफ़ायर मशीन लगी है, और तो और बच्चों को लोकतंत्र से रू-ब-रू कराने व स्कूल के बेहतर संचालन के लिए यहां बाल संसद- सह कार्यकारिणी भी कार्यरत है.
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स्कूल के बेहतर संचालन के लिए बाल संसद की भूमिका व इतिहास पर स्कूल के शिक्षक सह-प्रधानाध्यापक हेमन्त कुमार झा कहते हैं, “स्कूल में बाल संसद साल 2012-13 से ही चल रहा है. मैं साल 2014 में यहां आया. स्कूल के प्रधानाध्यापक नागेश्वर प्रसाद पहले से ही बाल संसद चला रहे थे, तो मैंने भी इसे चलाने में अपनी भूमिका अदा की. बच्चों के साथ ही ग्रामवासियों का भरपूर सहयोग मिला. स्कूल की बाग़वानी बच्चों के ज़िम्मे है.”
जब हमने उनसे इस सुदूर ग्रामीण इलाके में काम करने के संघर्ष को लेकर सवाल किए तो उनका कहना था, “अब इधर ही मन लग गया है. बच्चों के बीच अच्छा लगता है. शिक्षकों की कमी की वजह से दिक़्क़त तो है, लेकिन मैनेज कर रहे हैं. जैसे इस बीच एक शिक्षक का ट्रांसफ़र हो गया और एक शिक्षक सेवा निवृत्त हो गए. फिर भी हमारे आग्रह पर सेवानिवृत्त शिक्षक अब भी बच्चों को पढ़ाने के लिए रोज़ स्कूल आ जाते हैं.”
सेवानिवृत्त होने के बावजूद स्कूल के बच्चों को पढ़ा रहे दिनेश कुमार हमसे बातचीत में कहते हैं, “बच्चों से प्रेम हमें यहां खींच लाता है. हमने बड़ी मेहनत से चीज़ों को ठीक किया है. शिक्षक के बिना सारा मामला गड़बड़ा जाएगा. ऐसे में हम सोचते हैं कि जब तक शिक्षक न आएं, तब तक हम सेवा देते रहें. ताकि बच्चों को भुगतना न पड़े.”
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